गरीबी और अमीरी का खेल
गरीबी और अमीरी का जो खेल चलता है
आदमी की कीमत पर सिर्फ शेर मिलता है।
गरीबी तो खुद की पहचान मिटा देता है
कंधों पर बोझ का मकान बना देता है।
हाथों पर पसीना, चेहरे पर गर्म धूप है
रोज का यही रूप है, व्यथा के अनुरूप है।
आभूषण में छुपी मन की खामोशी है
बंद कमरों में मौखिक मदहोशी है।
रंग रूप से नाता है, सबको यही भाता है
आनंद ही राजा है, सच को कौन अपनाता है?
आर्थिक संग्राम का सारा इंतजाम है
ग्राम को क्यों नहीं इसका अनुमान है?
मर्द की मजबूरी में औरत अधूरी है
दुविधा की दिलेरी में धर्म की पहेली है।
क्या ये सच में सोचने की बात है
खुद से पूछो ये किसका अपराध है?
हम सब एक ही धागे की कड़ियाँ हैं
सपनों के सारे ये अठखेलियां हैं।
गौतम झा