
शरद पूर्णिमा
आज की रात, चाँद नहीं — कोई साधक है,
जो अंबर पर दीपक-सा जलता है।
उसकी किरणें जैसे श्वेत उपनिषद हों,
जो मौन में भी मन को पढ़ता है।
हर पत्ती पर ओस का अक्षर झिलमिल,
जैसे प्रकृति ने मंत्र लिखा हो।
नदी रुकी नहीं, पर बोलती कम है,
जैसे प्रवाह ने संयम सीखा हो।
गौशालाओं में धीमे स्वर की नींद है,
धान की बालों में दुल्हन-सा गहना।
धरती आज थकी नहीं, स्थिर बैठी है,
अपने भीतर सुनती — “मौन का संगीत।”
यह वह क्षण है जब समय ठहर जाता,
जब दीप न जलते, पर उजाला होता।
जब चाँद की चुप्पी में कोई कहता है —
“सुख क्षणिक नहीं, वह मन का खेल है।”
कहा गया — अमृत बरसे इस रजनी,
पर वह अमृत कहाँ गगन से आता?
वह तो झरता है भीतर ही भीतर,
जब मन न इच्छा, न भय जगाता।
शरद की यह पूर्णिमा दृश्य भर नहीं,
यह आत्मा में जली दीप शांति की।
जो सुन सके इस उजले मौन को,
वह छू चुका सीमा अनंत की।
-गौतम झा