
पिघलती बर्फ़
हिमालय की गोद में,
एक उजली चुप्पी थी —
जहाँ बर्फ़, नींद की तरह
पहाड़ों पर ठहरी रहती थी।
अब वो चुप्पी भी पिघलती है,
धूप की नुकीली उँगलियाँ
छू लेती हैं उसके ज़ख़्म,
और बर्फ़ आँसू बनकर ढल जाती है।
गंगा की गोद में उतरती है थकान,
जैसे माँ की हथेली में
धीरे-धीरे बुझती हो दीया की लौ।
पेड़ों के बीच से
एक ठंडी साँस निकलती है —
शायद यह पहाड़ की आख़िरी प्रार्थना है।
पत्थरों पर चमकती है नमी,
पर उसमें न कोई ठंडक है, न यक़ीन।
बस एक याद —
कि कभी यहाँ सर्दी रहती थी,
और बर्फ़ का मतलब, जीवन था।
-गौतम झा