
माण्डवी
राम का यश जब गूंज रहा था,
सीता की छवि सबको भा रही थी,
महलों के भीतर एक छाया-सी
माण्डवी भी तो जी रही थी।
भरत की संगिनी, धर्म की छाया,
व्रत और संकल्प की मृदु माया।
पति के व्रत को व्रत मान लिया,
हर दुख को हँसकर अपना लिया।
जब वनगमन से व्याकुल नगर था,
भरत ने राजसिंहासन ठुकरा दिया,
तब साथ खड़ी थी माण्डवी,
नेत्रों में मौन, पर आत्मा दीप्तमयी।
न आसन, न राजाभूषण का मान,
न पताका, न महलों का गान।
भरत के संग तप में बंधी रही,
व्रत के दीप-सी सदा जलती रही।
इतिहास ने कम ही लिखा नाम,
पर त्याग में वह भी है समान।
माण्डवी—एक अनकहा गीत,
धैर्य की ध्वनि, करुणा की प्रीत।
उसकी मौन छवि, अडिग समर्पण,
रामकथा का छिपा दर्पण।
माण्डवी है वह शांत धारा,
जैसे युगों-युगों का मौन हारा।
-गौतम झा