
स्त्री
‘स्त्री’, ‘पृथ्वी’ के हृदय पर किया गया,
‘ईश्वर’ का हस्ताक्षर है...!
वह मिट्टी नहीं, पर जीवन की गंध है,
वह शब्द नहीं, पर कविता की छंद है।
उसकी आँखों में भोर उतरती है,
और संध्या उसकी पलकें समेट लेती है।
उसकी हँसी में नदियाँ बहती हैं,
उसकी चुप्पी में सागर गहराता है।
वह स्पर्श नहीं, एक अनुभूति है,
जो आत्मा को सांसों तक छू जाता है।
जब वह प्रेम करती है,
तो ईश्वर अपने होने की घोषणा करता है,
और जब वह रूठती है,
तो पूरा ब्रह्मांड मौन हो जाता है।
वह केवल ‘वह’ नहीं —
समय का विस्तार, सृष्टि का आधार,
और पुरुष के हृदय में
छिपी हुई एक अधूरी प्रार्थना है।
‘स्त्री’, ‘पृथ्वी’ के हृदय पर किया गया,
‘ईश्वर’ का सबसे सुन्दर हस्ताक्षर है…!
-गुंजा झा