.jpeg)
सृष्टि का पहला रंग
वह खड़ी है — धूप के हृदय में,
जहाँ रेत भी झुककर प्रणाम करती है।
उसकी त्वचा पर झिलमिलाते हैं सूर्य के कण,
मानो रात्रि ने सोने का वस्त्र ओढ़ लिया हो।
काला — यह कोई रंग नहीं,
यह ब्रह्म की गहराई है,
जहाँ प्रकाश जन्म लेता है,
और सृष्टि अपनी पहली सांस लेती है।
उसकी देह, ध्यान का शिलालेख,
हर रेखा में कोई प्रार्थना लिखी हुई,
हर चमक में कोई इतिहास झिलमिलाता,
जो कहता है — "मैं हूँ, और मैं पर्याप्त हूँ।"
जो इसे अंधकार कहें,
उन्होंने शायद कभी रात को देखा नहीं;
क्योंकि सबसे सुंदर तो वही होता है
जिसे समझने के लिए आँखें बंद करनी पड़ें।
उसकी त्वचा — कोई परछाई नहीं,
वह तो सूर्य का मौन विस्तार है,
जहाँ हर किरण अपने स्रोत को पहचानती है।
काले में छिपा उजाला,
काले में बसी सृष्टि की स्मृति,
काला — वह रंग,
जिसमें ईश्वर ने स्वयं को रचा था।
-गुंजा झा