पूर्णिमा के गगन में नानक का नूर

पूर्णिमा के गगन में नानक का नूर

पूर्णिमा के गगन में नानक का नूर

गंगा के तट पर चाँद खिला,
जगमग दीपक हँसते हैं
धूप-धुआँ, आरती, नदियों की बाँहों में
भक्तों के मन बसते हैं।

नीरव नभ में झिलमिल स्वर,
प्राणों में कोई पुकार है
नानक के वचन अमृत बने,
हर हृदय में एक सार है।

"ना कोई ऊँचा, ना कोई नीचा",
बोल उठी थी धरती माँ
जब सत्य का सूरज उगा था,
नानक ने कहासब में है एक समा।

उनके कदमों से गीत खिले,
सेवा बनी साधना,
हर श्रम में ईश्वर का स्पर्श,
हर मन में एक साध।

कार्तिक की यह शुभ रजनी,
जैसे ध्यान की अंतिम सांस,
जहाँ नदियाँ भी मौन हुईं,
और दीप बोले"प्रेम ही प्रकाश।"

कहते हैं उस रात के बाद,
धरा में बदली थी दृष्टि
मनुष्य हुआ जब करुणा से पूर्ण,
और भेद मिटे दृष्टि की सृष्टि।

आज फिर वही चाँद खिला है,
वही गंगा बहती है शांत
नानक का नूर हवा में घुला,
जग में फिर जागा विश्वास।

 -गौतम झा

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3 Comments

  •  
    pk
    2 days ago

    Waah!

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    pk
    2 days ago

    Waah!

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    pk
    2 days ago

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