
निर्वाण की शरण
मैं झुकता हूँ उस शक्ति के आगे,
जो साँसों से भी हल्की है,
और पत्थरों से भी भारी।
वह जो नहीं है फिर भी हर जगह है,
वह जो मृत्यु से बड़ा है
और जीवन से भी सच्चा।
मैं झुकता हूँ उस मौन के आगे,
जो गूँजता है आत्मा के भीतर—
जैसे सूखी आँखों में अचानक
कोई पुराना सपना लौट आए।
ईश्वर!
तेरी मूर्तियाँ मिट जाएँगी,
तेरे मंदिर ढह जाएँगे,
तेरे शास्त्र राख हो जाएँगे,
तेरे मंत्र हवा में खो जाएँगे,
पर तेरे नाम का अर्थ
इस धरती की धूल में भी चमकेगा।
तेरे स्पंदन से ही
पहाड़ अपनी निश्चलता पाते हैं,
नदियाँ अपना मार्ग चुनती हैं,
और मनुष्य अपने भीतर
एक अनकहा सत्य खोजता है।
मैं झुकता हूँ उस अनाम ज्योति के आगे,
जो आँखों से दिखाई नहीं देती,
पर हर हृदय में
एक बुझी चिंगारी की तरह
जल उठने को आतुर रहती है।
निर्वाण!
तू न मृत्यु है, न जीवन,
तू उस शून्य का वादा है
जहाँ कोई प्रश्न नहीं,
केवल उत्तर है—
शांत, अडिग, शाश्वत।
-गौतम झा