
नेपाल की ज्वाला
मत पूछो, क्यों धधक उठीं गलियाँ काठमांडू की,
युवा रक्त में उबाल है, अन्याय के विरुद्ध हुंकार है।
सोशल मीडिया पर जब बंधन डाला,
तो शब्द नहीं, ज्वाला फूटी।
नेपाली नवयुवक सड़क पर उतरे,
तानाशाही की नींव हिली।
सिर्फ़ दो दिन, और उन्नीस शव गिरे,
तीस से अधिक जख्मी हुए—
क्या लोकतंत्र के प्रहरी यही हैं,
जो जनता के लहू से सिंहासन सींचें?
कर्फ़्यू की जंजीरें कस दीं,
सेना की टुकड़ियाँ शहर में उतरीं।
पर जन-मन को कौन बाँध पाया,
जब वह सत्य के लिए जूझ उठा?
Gen-Z की आँखों में कोई डर नहीं—
वे जानते हैं, अधिकार भीख नहीं,
अधिकार रणभूमि से मिलते हैं।
दिनकर की भाषा में कह दूँ—
“अरे शासन! याद रखो,
यदि जनता की नाड़ी दबाओगे,
साम्राज्य को धूमिल पाओगे।”
नेपाल का यह विद्रोह एक संदेश है:
लोकतंत्र का सूरज तभी उज्ज्वल है,
जब उसकी किरणें हर नागरिक को छूएँ।
अन्यथा, हर गली से उठेगी पुकार—
“जनता जगेगी, सत्ता झुकेगी।”
-गौतम झा