ख़ुद से मुलाक़ात

ख़ुद से मुलाक़ात

ख़ुद से मुलाक़ात

कभी-कभी मैं ख़ुद ही से सवाल करता हूँ,
कि क्यों मैं आज भी अधूरा सा लगता हूँ।

हवा में गूंजती हैं कुछ अनकही आवाज़ें,
मैं अपने घर में भी पराया सा लगता हूँ।

कभी किसी ने जो देखा था ख़्वाब मेरी आँखों में,
वो अब किसी और का तजुर्बा सा लगता हूँ।

मुस्कुराहटों के पीछे जो दर्द छिपा बैठा हूँ,
वो हर नज़र को अब भी दास्ताँ सा लगता हूँ।

मिरे ही दिल ने कही थी जो बात कल रात,
उसी को सुन के मैं तन्हा सा लगता हूँ।

जहाँ में ढूँढता हूँ अपनी ही परछाईं को,
हर आईने में मैं बेवफ़ा सा लगता हूँ।

-गौतम झा

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