
दोस्ती की वो ख़ामोश रोशनी
जब उम्र बढ़ती है, पर दोस्ती ठहर जाती है!
अब दोस्ती वैसी नहीं रही —
न स्कूल की छुट्टियों वाला हुल्लड़ है,
न कॉलेज की छत पर सपनों की बैठक।
अब जीवन चुपचाप बहता है
बचपन के उन ठिकानों से,
जहाँ दोस्त बस साथ नहीं होते थे —
बल्कि वही जीवन थे।
अब हम सब बड़े हो चुके हैं —
रोज़गार, परिवार, कर्तव्य और थकावट की गठरी में
कभी-कभी कोई नाम अचानक उभर आता है —
फोनबुक में, या दिल की किसी बंद पड़ी दराज़ में।
कभी-कभी एक फ़ोन आता है —
"अबे ज़िंदा है?"
और इतनी सादगी से
वक़्त की दीवारें ढह जाती हैं।
अब दोस्ती शोर नहीं मांगती,
बस मौन में साथ निभाती है।
न कोई मांग, न कोई वादा,
बस इतनी सी बात —
कि जब सब साथ छोड़ दें,
तो एक आवाज़ अब भी कहे —
"मैं यहीं हूँ, तू कह नहीं सका, पर मैं समझ गया।"
अब दोस्त वो है
जो तुम्हारे शब्दों से पहले तुम्हारे मन को पढ़ ले,
जो अपनी व्यस्त दुनिया में भी
तुम्हारे अकेलेपन की दस्तक सुन ले।
अब दोस्ती कोई त्यौहार नहीं,
बल्कि एक अदृश्य संबल है —
जो हमें भीतर से जोड़ता है
उन दिनों से, जब हम ख़ुद को सबसे सच्चा समझते थे।
इस मित्रता दिवस पर,
उन सभी दोस्तों को प्रणाम —
जिनसे महीनों बात न हो,
फिर भी जिनकी याद
हर चाय की चुस्की में घुली रहती है,
हर थकान के बाद सबसे पहले जिनका नाम आता है।
मित्रता अब कहानियों में नहीं, ख़ामोशियों में ज़िंदा है।
उम्र भले बदल जाए, पर सच्चा दोस्त कभी पुराना नहीं होता।
– गौतम झा