छठ पर्व
न आरती की गूँज यहाँ, न पटाखों का शोर,
दीप जलें तो भक्ति से, न लोभ की ओर।
छठ उतरता है धरती पर जैसे निर्मल प्राण,
यह तो जन-जन का पर्व है, विश्वास का गान।
सूर्य को अर्घ्य दे जब जल में उतरती नारी,
उसकी मौन प्रार्थना में दिखती दुनिया सारी।
न पंडित, न ग्रंथ, न कोई बंधन भारी,
मां से बेटी तक सजीव यह परंपरा प्यारी।
न ऊँच-नीच का भेद यहाँ, न जाति का सवाल,
सब खड़े हैं एक साथ, नदी बने समतल हाल।
सूरज की किरणें बांटें समान उजाल,
भक्ति यहाँ है सरल, और आस्था बेमिसाल।
बाँस की डलिया, गुड़ का स्वाद, मिट्टी की महक,
धरती का हर कण गूंजे — “जय छठी मइया” अनेक।
न मॉल से खरीदा कुछ, न दिखावे की टेक,
यह पर्व है सादगी का, यह भक्ति है नेक।
जब डूबते सूरज को नमन करती प्रजा,
और उगते पर झुक जाती सबकी दृष्टि सजा,
तब लगता है — ईश्वर नहीं कहीं दूर बसा,
वह तो यहीं है, इस लोक में, इस जल में, इस हवा में बसा।
छठ है वह पर्व जहाँ ईश्वर नहीं, इंसान मिलता है —
और हर अर्घ्य में, हर दीप में, आत्मा खिलता है।
-गौतम झा