भस्म और भ्रम

भस्म और भ्रम

भस्म और भ्रम

लंका नहीं बचा पाया शीश चढ़ाने वाला,
किस वहम में जी रहे हैं दूध चढ़ाने वाले।

तर्क की अग्नि में, विश्वास पिघलता है,
जब कर्म की कसौटी पर, सब भ्रम निकलता है।

वो शीश थे दस, जो त्याग में ढल गए,
शिव को रिझाया, पर भाग्य से छल गए।

ज्ञान का सागर था, शक्ति का था भंडार,
पर अहंकार ने लंका का किया संहार।

पूजा की ऊँचाई भी, राख में मिली जब,
किस शक्ति के भरोसे, बैठे हो तुम अब?

जो दूध चढ़ाए, वो राह देखता है,
कि ईश्वर उतरेगा, और भाग्य लिख देगा।

ये पूजा नहीं, ये है बचने का बहाना,
कि प्रयास से पहले ही, फल मिल जाना।

मेहनत की धार छोड़, तुम हाथ मलते हो,
सिर्फ रीत और रस्मों में, क्यों जीवन जीते हो?

शिव तो श्मशानवासी हैं, सदा वैरागी हैं,
उन्हें भोग नहीं, उन्हें निस्वार्थ त्यागी चाहिए।

मुक्ति मिलेगी, कल्याण होगा,
जब तक संघर्ष से तुम्हारा पलायन होगा।

मंदिर की चौखट पर, सिर झुकाकर क्या लाभ?
जब कर्तव्य के रण में, हो तेरा प्रताप।

जागो! ये वहम त्यागो, कि भाग्य सँवर जाएगा,
जो कर्म करेगा, बस वही पार पाएगा।

 -गौतम झा

Newsletter

Enter Name
Enter Email
Server Error!
Thank you for subscription.

Leave a Comment