बैंगन-वृक्ष
यह तना, यह ऊँचा विस्तार — क्या केवल बैंगन है?
या वर्षों से झुकी उस कमर का कोई स्वप्न गहन है?
जहाँ ज्ञान थका, वहाँ कल्पना ने राह बनाई,
यह प्रकृति नहीं, यह परिश्रम की परछाई है भाई।
छोटे पौधों से थककर जो पीठ पीड़ा सहती थी,
उसी पीड़ा ने शायद जड़ें और गहरी कर दीं।
ईंट-पत्थर तोड़ते हुए, एक इच्छाशक्ति पनपी,
कि अब टूटे न तन, न समय की कोई घड़ी।
वह डंडा नहीं — आत्म-सम्मान का सहारा है,
जो कहता है, “अब मैं नहीं झुकूँगा दोबारा।”
हर ऊँचाई को छूने का एक मौन इरादा है,
हर फल में छिपा किसान का अधूरा वादा है।
जिसे दुनिया कहे, “चित्र का धोखा,”
वह मेरे लिए है, “सत्य का झरोखा।”
मनुष्य चाहे तो नियति को मोड़ सकता है,
जो पौधा न बने पेड़ — उसे भी खड़ा कर सकता है।
यह वृक्ष केवल बैंगन नहीं, एक असंभव कथा है,
उस थके हुए देह का अटल संकल्प गाथा है।
देखो — यह किसान सीधा खड़ा है,
समय से नहीं, अपनी मेहनत से बड़ा है।
-गौतम झा