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कैकयी
कौन कहे—
स्त्री का नाम केवल कलंक का दीप है?
कैकयी की छवि,
संध्या-तारा समान,
तेज और विषाद की संयुक्त ज्योति है।
वह न थी केवल कोमल हृदया,
उसकी भुजाओं में था धैर्य,
उसकी दृढ़ता में था रणगर्जन।
रथ का पहिया थाम,
उसने मृत्यु को पराजित किया—
दशरथ को नूतन जीवन दिया।
युद्ध की धूल से उठी वही नारी
राजमहल में नीति का सूत्रपात कर रही थी।
उसकी दृष्टि में भय नहीं था—
भविष्य का संश्लेष था,
भरत की वंशरेखा के लिए,
राज्य की अखंड मर्यादा के लिए।
पर एक क्षण—
वाणी बन विधि हो गई,
और राम का वनवास
उसकी नियति का दर्पण ठहर गया।
इतिहास ने उसे कठोर कहा,
जनता ने अपराधिनी पुकारा।
पर विचारो—
वनपथ बिना क्या राम मर्यादा-पुरुषोत्तम हो पाते?
भरत का त्याग,
लक्ष्मण की अडिग सेवा,
सीता का तपोमय तेज—
क्या बिना उस निर्णय के अंकुरित होते?
हाँ, पश्चाताप का सागर उसकी आँखों में उमड़ा,
पर आत्मबल की धारा ने
उससे अपनी त्रुटि स्वीकार कराई।
वह मातृत्व जो झुका,
वह स्त्रीत्व जो स्वयं को दंडित कर उठा—
यही उसकी उच्चता का प्रमाण है।
कैकयी—
तू दोष की छाया नहीं,
महागाथा का गुप्त शिल्प है।
तेरे बिना रामायण अधूरी,
तेरे बिना धर्म का दीप आधा।
आज तुझे स्मरण करते हैं हम—
न अपराधिनी, न कलंकिनी,
बल्कि विस्मृत महिमा की ध्वजा,
जिसकी छाया में ही
राम का आलोक प्रकट हुआ।
-गौतम झा