देव प्रबोधिनी एकादशी
चार मास की निद्रा में, हरि शांति सागर में सोए,
धरती, गगन, दिशाएँ सब, मौन तपस्या में खोए।
आज भोर की प्रथम किरण संग, भक्तों ने स्वर पुकारा,
“उठो गोविंद, जगो माधव!” गूंजा नभ सारा।
शंखनाद से फूटी गूँज, मृदंग की ताल थिरक उठी,
मंदिर के प्रांगण में जैसे, स्वयं भक्ति मुस्कुराई खड़ी।
घंटों की मधुर झंकार में, आरती का भाव झलका,
हर हृदय ने एक ही वाक्य कहा — “जागो नाथ, जगत जागा।”
“उत्तिष्ठोत्तिष्ठ गोविन्द, त्यज निद्रां जगत्पते,”
भक्तों की यह विनती गगन तक जा पहुँची नित नए।
“त्वयि सुप्ते जगन्नाथ, जगत् सुप्तमिदं भवेत्,”
हर पलक कहे — हे विष्णु! जागो, जग पुनः सजे।
उठो वाराह रूप धारण कर, फिर धरा को थामो,
हिरण्याक्ष संहारक बन, पुनः त्रैलोक्य को थामो।
वसुंधरा मुस्कुराए फिर, जब हरि की दृष्टि पड़े,
भक्ति की यह ज्योति सदा, मानव मन में जलती रहे।
शंखों की गूंज में भीगे, हर मंदिर, हर द्वार,
दीपों की लड़ी सी बिखरी, श्रद्धा का उजियार।
माता तुलसी के आँगन में, जल छिड़का आज सवेरे,
हर मन में हरि का नाम जपे, प्रेम बहा घनेरे।
जो उपवास करे इस दिन, हरि चरणों में ध्यान लगाए,
वह सुख, समृद्धि, शांति का, अमृत फल वह पाए।
हरि के जागरण संग जगे, संसार का हर कण,
भक्ति बन जाए जीवन की, सबसे सुंदर धुन।
जागो नारायण! जागो मधुसूदन!
भक्त तुम्हें पुकारें बारंबार,
देव प्रबोधिनी की शुभ बेला में,
भर दो जग में फिर से प्यार।
-गौतम झा