
जब मुल्क बँटे, तो नदियाँ भी बाँटी गईं,
धाराएँ हुईं पराई, फिर भी बूँद-बूँद सौंपी गईं।
छह बहनों में से तीन — सिंधु, झेलम, चिनाब —
सौंपीं पाकिस्तान को, शांति की चाह में दिया जवाब।
तीन — रावी, ब्यास, सतलुज — रखीं हमने अधिकार में,
पर जो दीं, दीं संकल्प से, बिना किसी तकरार में।
सन् साठ की वो सुबह थी, जब जल बना था शांति का मंत्र,
सींचा शत्रु को भी हमने, मिटाया भूख का सूखा तंत्र।
हमने सहे युद्ध और धोखे,
पर न टूटी संधि की डोर।
हर बूँद बहती रही उदारता में,
भारत बना रहा शांत मुनि सा ठौर।
पर अब पहलगाम की घाटी में,
गूँजा जब बारूद का गीत।
शहीदों का लहू पुकार उठा—
"कहाँ है वह जल की जीत?"
फिर भी बहती रही तू, हे सिंधु!
शायद तू भी मौन खड़ी थी।
पर संसद बोली—"अब बहुत हुआ",
हर बूँद अब प्रतिज्ञा बनी थी।
अब न बहोगी सीमा पार,
शत्रु करे ना जल का व्यापार।
शांति जब तक न हो स्वीकार,
तेरे द्वार रहेंगे प्रश्न अपार।
यह प्रतिशोध नहीं—चेतावनी है,
यह क्रोध नहीं—सजगता की रवानी है।
भारत अब मौन नहीं रहेगा,
अब लहू, रणराग बन जगेगा।
जो जल कल तक जीवन देता था,
अब बनेगा नीति का गंभीर स्वर।
हर बूँद अब मूल्य माँगेगी,
हर धार बोलेगी निर्णायक ठहर।
हे सिंधु! तू नदियों की रानी,
आज बनी है न्याय की सेनानी।
जल से न अब केवल शांति बहेगी,
अब नीति की धारा भी संग चलेगी।
-गौतम झा