अभिन्न-विभिन्न
बातें तो विभिन्न है,
सवाल भी अभिन्न है।
गुण तो गुमनाम है,
गुमान का गान है।
पाप पर्याप्त है,
पंथ भी व्याप्त है।
स्वामी का भक्ति है,
भाव की रिक्ति है।
कौरव का कार्य है,
पांडव बेकार है।
धन अधैर्य है,
अपने से बैर है।
सतयुग का मन्नत है,
इतिहास में जन्नत है
सत्ता में सहयोग है,
विरोध अब संयोग है।
परिचित का पुरस्कार है,
अपरिचित भरा संसार है।
योग का शोर है,
मन में मरोड़ है।
संत सब शिष्ट हैं,
वंश में भी विशिष्ट है।
घटनाएं अनेक हैं,
रंग सबके एक हैं।
चित्र तो विचित्र है,
वर्णन ही कृत्य है।
-गौतम झा
Pankaj Kumar
7 months agoअति-सुन्दर्!
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6 months agoचित्र तो विचित्र है वर्णन ही कृत्य है....वाह!
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6 months agoचित्र तो विचित्र है वर्णन ही कृत्य है....वाह!