
शरीफ़ का वैश्विक डोर
UNO का मंच, शरीफ़ की वही पुरानी कहानी,
बसीरंगी जुमले, बासी शिकायत, खोखली नादानी।
पहले गाया राग – “ट्रम्प हैं शांति दूत महान,”
मध्यस्थता की आस में गँवाया अपना ध्यान।
फिर कश्मीर का राग छेड़ा, आरोपों की बौछार,
भारत को घेरने की कोशिश, पर तर्क हुए बेकार।
दिल्ली का रुख़ अटल है, बस द्विपक्षीय हल होगा,
तीसरे की घुसपैठ यहाँ, एक पल भी न सहन होगा।
पानी की भी बात उठाई, संधि का उल्लंघन बताया,
आतंकी ठिकानों को फिर निर्दोष बना कर जतलाया।
कहा – “युद्ध का कृत्य है, जो हमने कदम उठाए,”
पर सीमा पार से भेजे ज़ख़्म, कौन भला भुलाए?
विदेश नीति की दुहाई दी, “सबका हो सम्मान,”
पर अपने आँगन में बोया, आतंक का तूफ़ान।
दावे कितने भी हों ऊँचे, पर सच नहीं छुपता,
जब पड़ोसी हर घड़ी ज़हर, सरहद पर बरसाता।
ये भाषण रणनीति पुरानी, गिरती हुई डोर,
मध्यस्थता की भीख माँगी, चाहे वैश्विक हो शोर।
पर दुनिया जान चुकी है, समस्या की जड़ कहाँ है,
जब तक आतंकी फैक्ट्री जीवित, समाधान कहाँ है?
तालियाँ, तारीफ़ें—सब रणनीति की ही चाल हैं,
सहानुभूति की बिसात बिछाकर, बस कूटनीतिक जाल हैं।
पर एक बात साफ़ है, निर्विवाद और प्रबल,
बिना दहशत के अंत के, न होगा कोई सफल।
-गौतम झा