मनुष्य और वृक्ष
धरती की गोद में दोनों जमे हैं समान,
एक रस पीता जल का, एक स्वप्नों का अज्ञान।
वृक्ष छाया बुनता है मौन करुणा से,
मनुष्य शब्द गढ़ता है अपने अरुणा से।
ऋतुएँ जब वृक्षों को निर्वस्त्र करती हैं,
मन भी तब अपने दुखों में नंगा पड़ता है।
पत्तों का झरना हो या आँसू का बहना,
दोनों का मौन ही सृष्टि का सत्य कहता है।
वृक्ष को काटो तो धरती की धड़कन रुकती है,
मनुष्य को तोड़ो तो संवेदना झरती है।
दोनों की जड़ें किसी अदृश्य आत्मा से जुड़ी हैं,
जहाँ माटी और मन का भेद मिटता है।
न करो विभाजन प्रकृति और प्राणी में,
दोनों एक ही नाद हैं ब्रह्म के गान में।
वृक्ष में मनुष्य की साँस बसती है,
और मनुष्य में वृक्ष का प्राण ध्वनित होता है।
-गौतम झा