
दादा और पोता
दादा की आँखों में वर्षों की धूप है,
पोते की हँसी में सुबह की धुन।
एक ने जीवन देखा है चलकर,
दूजा अभी चला नहीं गली के गुमसुम कोनों तक।
दादा की छड़ी, इतिहास की कलम है,
जो हवा में भी लिख देती है सीखें।
पोते की उँगली, भविष्य की रेखा है,
जो मिट्टी में भी बना देती है सपने।
दादा कहता — “धीरे चलो बेटा, रास्ता लंबा है,”
पोता पूछता — “कितना लंबा, दादा?”
और इस प्रश्न में जैसे समय ठहर जाता है,
जहाँ ज्ञान सिर झुकाता है जिज्ञासा के आगे।
दादा के पास किस्सों की गठरी है,
पोते के पास कल की योजना।
दोनों मिलकर जब हँसते हैं,
तो वक्त भी ठिठककर देखता है —
कैसे अनुभव और मासूमियत
एक ही पल में एक-दूसरे को समझ लेते हैं।
दादा के लिए पोता है पुनर्जन्म की धुन,
पोते के लिए दादा है आदिकाल की गूँज।
एक में अनुभव का सागर है,
दूजे में उस सागर की पहली लहर।
-गौतम झा