
तथागत
विकारों की तपती धूप में,
शांति का एक दीप जले।
वन में नहीं, हृदय में बसें,
वो तथागत, जो मौन कहे।
न सिंहासन, न मोह-माया,
न युद्ध, न कोई अभिलाषा।
एक कटोरा, एक चिवर,
और करुणा की परिभाषा।
कपिलवस्तु का त्याग कर,
सिद्धार्थ बने संन्यासी।
बोधिवृक्ष की जड़ें गवाही,
जहाँ बोधि की रश्मि चमकी।
न आरती, न जयकारा,
न वाद्य, न शंख बजे।
बस मौन की वह ध्वनि उठी,
जो भीतर के बंधन सजे।
"अप्प दीपो भव" कहा उन्होंने,
"स्वयं बनो तुम दीप प्रकाश।"
जो निज को जान न पाए,
वो पाए कैसे मुक्ति-विलास?
तथागत कोई नाम नहीं,
न देव, न पूजा का पात्र।
वो है उस सत्य की झलक,
जो मिटा दे भीतर का तमस।
चलो उसी पथ पर चलें,
जहाँ न कोई छल, न द्वेष।
जहाँ हर प्राणी सम हो,
और चित्त हो विशेष।
-गौतम झा