किशोर का स्वप्न
दिल्ली के गलियारों से आया एक नया नाम,
रणनीति का धुरंधर, राजनीति का नया पैगाम।
देखा बिहार को, जो बरसों से था बेहाल,
संकल्प लिया—बदलेगा अब यह बदहाल।
कहा उसने, “न जाति, न धर्म, बस विकास हो आधार,”
तभी बनेगा यह प्रदेश, तभी मिटेगा अंधकार।
छोड़ दिया सलाहकार का पद, त्याग दिए सुख-साधन,
अब लक्ष्य था केवल ‘जन सुराज’ का आवाहन।
युवाओं को ललकारा, बुद्धिजीवियों को जोड़ लिया,
पुरानी राजनीति के हर समीकरण तोड़ दिया।
प्रशांत किशोर नाम था, इरादे थे उसके नेक,
सोचा—जनता को जगाऊँगा, बनाकर एक नई टेक।
नंगे पाँव का संकल्प
शुरू हुई फिर तपस्या, इतिहास में जो अमर है,
नंगे पाँव की यात्रा, जिसका हर पग निरंतर है।
तीन साल का वादा, तीन हज़ार किलोमीटर का,
पदयात्रा का मार्ग था, हर गाँव और हर घर का।
धूल फांकी, धूप सही, गाँव-गाँव का दर्द सुना,
हर गरीब, हर किसान की व्यथा उसने चुना।
बेतिया से चलकर, हर ज़िले में डेरा डाला,
समझा यहाँ की पीड़ा—क्यों जर्जर है यह पाठशाला।
शिक्षा की बदहाली, पलायन की मजबूरी का गान,
टूटी तंत्र, भ्रष्टाचार, हर तरफ दुख और अपमान।
सोचा उसने—सीधा संवाद ही क्रांति लाएगा,
जनता के मन में एक नया विश्वास जगाएगा।
यह मेहनत, यह पसीना बदलेगा यहाँ का मिज़ाज़,
पुरानी परिपाटी पर गिरेगी एक नई गाज।
विचार और यथार्थ का द्वंद्व
पर बिहार की धरती पर कुछ और ही नियम चलते हैं,
जहाँ वोटबैंक के समीकरण कभी नहीं बदलते हैं।
सत्ता के अखाड़े में जाति और वंशवाद की गहरी जड़,
विचारधारा की बातें यहाँ पड़तीं अक्सर थोड़ी कमज़ोर।
लाखों कदम चला, पर वोट में तब्दील न हुआ,
परिवर्तन का विचार धरातल पर कहीं नहीं उतरा।
जनता का साथ मिला, पर सत्ता ने साथ न दिया,
बदलने की इच्छा दिखी, पर आदतों ने रास्ता रोक लिया।
जिस क्रांति की मशाल उसने जलाई बड़े जतन से,
वो ठंडी पड़ गई चुनावों के दंगल में जाने किस कारण से।
रणनीतिकार की सोच जनमत पर भारी न पड़ी,
‘वोट कटर’ की उपाधि सच्चाई से बहुत अलग खड़ी।
एक अधूरा अध्याय
तो क्या यह प्रयास केवल एक स्वप्न बनकर रह गया?
क्या नंगे पाँव का यह तप व्यर्थ ही चला गया?
नहीं—उसने बीज बोया संवाद की नई शुरुआत का,
डर और चुप्पी तोड़ने का, एक साहसी नई बात का।
‘जन सुराज’ का विचार अभी भी कहीं ज़िंदा है,
परिवर्तन की चाह लोगों के मन में अब भी बसा है।
यह कहानी है उस पुरुष की जिसने प्रयास किया था भारी,
पर बिहार ने फिर चुनी वही अपनी पुरानी सवारी।
सफलता अभी दूर सही, मंज़िल मिली नहीं पूरी,
पर संघर्ष की यह गाथा कभी रहेगी नहीं अधूरी।
गौतम झा