
ऋषि याज्ञवल्क्य
जनक सभा में जब प्रश्न बरसे,
दार्शनिक गाथाएँ को आकाश तरसे।
गर्जन-सी वाणी, शांत स्वरूप,
याज्ञवल्क्य खड़े, सत्य के अनूप।
गुरुकुल में साधना का नाद,
ऋचाओं में गूंजता उन्नत संवाद।
वेदों के अंतरंग रहस्य खोले,
उपनिषदों के गगन को तोले।
“नेति-नेति” की गूंज निराली,
सीमा से परे उनकी भाषा प्यारी।
जो दिखे उसे माया जानो,
जो न दिखे, वही सत्य साधो।
गार्गी ने जब तर्क उठाया,
ब्रह्म के स्वरूप पर प्रश्न जमाया।
याज्ञवल्क्य मुस्काए गहन दृष्टि से,
उत्तर दिया ज्ञान-दीप्ति से।
मैत्रेयी के संग गहन विमर्श,
अमरत्व का खोजा उत्कर्ष।
धन-सम्पदा से आत्मा न तृप्त,
ज्ञान ही देगा मोक्ष का युक्त।
वह तपस्वी था, पर साथ गृहस्थ,
धर्म और ज्ञान का अनोखा पथ।
न वैभव, न लौकिक आस,
ब्रह्म ही उसका शाश्वत विश्वास।
यज्ञों की धारा, मंत्रों की रीत,
ऋषि ने दी नई प्रीत।
शुद्धि के पार जब साधक बढ़ा,
याज्ञवल्क्य का प्रकाश जग सारा चढ़ा।
इतिहास ने उसका नाम सँजोया,
ज्ञान का दीपक युगों तक जलाया।
सत्य और आत्मा का था जो ज्ञाता,
वह था याज्ञवल्क्य — ब्रह्म का गाथा।
-गौतम झा