
गंगा के कंधों पर रखी आग, सोन की रेत में चमका राग;
यहाँ हर कण ने कहा—“स्वराज्य ही मेरा सबसे बड़ा 'अपराध'।”
आरा के रण ने देखा साहस, इतिहास बना फिर से साहस की गाथा;
उम्र की धूप पीठ पर थी, पर भुजाओं में था अडिग बल—
कुंवर सिंह की तलवार गूँजी—“वतन! मैं तुम्हारा अमर प्रहरी।”
मुंगेर के कारखानों में धातु ने सीखी धधकती भाषा,
तोपों की गड़गड़ाहट में छिपी रही मुक्तिवाद की परिभाषा।
दरभंगा के आँगनों से निकली विद्या, बनी जन-दीक्षा,
पुस्तकों, मंचों, प्रबुद्ध स्वरों ने गढ़ी स्वराज्य-दीक्षा।
मुज़फ़्फ़रपुर ने याद रखा वह किशोर, वह निश्चय अडिग;
खुदीराम की मुस्कान बोली—“स्वाधीनता ही जीवन का उद्देश्य।”
चंपारण की नीली मिट्टी ने गांधी को स्पष्ट बुलाया,
सत्याग्रह का पहला सूरज यहीं उदित हो आया।
समस्तीपुर की पटरियों ने रात्रि में संदेश पहुँचाए,
रेल की खिड़की से पर्चों ने सोए नगर जगाए।
सोनपुर के मेले में परछाइयाँ चुपचाप मिलीं,
मुट्ठियों में योजनाएँ, आँखों में अंगारियाँ खिलीं।
भागलपुर की हवाओं ने सीखा प्रतिकार की चाह,
गली-गली उठी प्रतिज्ञा—“न लौटेगी अब दासता की राह।”
गया की चौक-चौराहों पर छात्र-जुलूस उफना,
“इंक़लाब” का उच्चारण जन-मन में दीपक-सा जलना।
नालंदा की स्मृति ने दी विवेक-दीर्घा का आसन,
पाटलिपुत्र की धरती ने पहना संघर्ष का स्वर्ण-वसन।
सीवान, सहरसा, जहानाबाद—हर जिले की थी एक आग,
किसान, छात्र, कारीगर—सबने साधा एक ही राग।
और जब इतिहास ने पन्नों पर स्वतंत्रता लिख डाली,
बिहार की मिट्टी ने कहा—“संघर्ष अभी बाकी है, साथी।”
यह धरती केवल भूगोल नहीं, यह जन-गान का स्वर है;
नील से रणघोष तक का पथ—यही बिहार का अभिमान है।
-गौतम झा