
गणेश चतुर्थी
सज गए पंडाल, चमक उठा बाज़ार,
ढोल-नगाड़ों में डूबा त्यौहार;
मोदक चढ़े, नारियल फूटे,
फिर भी भूख से सोता मजदूर लाचार।
गणपति आए विघ्न हरने को,
पर विघ्न तो बैठा हर घर-द्वार;
कर्ज़ तले दबा किसान मरता,
रोज़गार बिना नौजवान भटकता।
एक तरफ़ पंडाल में सोने का गणपति,
दूसरी तरफ़ झोपड़ी में रूखी रोटी;
अगर भक्ति सच में जाग गई होती,
तो क्यों आज भी भूख होती ?
आरती के शोर में सच दब जाता,
झूठी चमक में आँखें बहक जाता;
पत्तल में बचा प्रसाद कूड़े में,
बच्चों की उँगलियाँ उसी दाने में।
नेता की तस्वीरें, फ़ीता, भाषण,
ठेकेदार के खाते में मोटी राशन;
दान-पेटी गिनती रातों-रात,
गलियों में अब भी वही टूटी बात।
हे गणेश! तू बुद्धि का दाता,
झूठी आभा से हमें छुड़ाता;
पहले विकास खड़े हों मज़बूत,
फिर रात को चमके उत्सव ज़रूर।
सच्ची पूजा धूप-बत्ती में नहीं,
अन्याय से लड़ने की ताक़त में है कहीं;
जब भूखे को रोटी, बीमार को मरहम मिले,
तभी सच्चा "गणपति बप्पा मोरया" गगन छुए।
अगली चतुर्थी आना बप्पा,
पंडाल नहीं — हमारे भीतर बैठना;
विघ्न वही हटाना सबसे पहले,
जो हमने अपने ही मन में पाल रखे।
गौतम झा