
भारतीय नारी
एक युग था, जब अँधेरा और रसोई था उसका संसार,
आँच की साक्षी, बस चूल्हे का धुआँ था उसका श्रृंगार।
'रोटी बनाने वाली' थी पहचान, था बस इतना ही काम,
गृहलक्ष्मी कहलाई, पर सीमित था उसका नाम।
तुलसी-सी पूजी गई, पर आँगन की चौखट थी सीमा,
घर की धुरी बनी, पर इच्छाएँ थीं मरी हुई प्रतिमा।
साहित्य में वो सीता बनी — त्याग की मूरत,
या राधा-सी प्रेम दीवानी — बस एक अदृश्य सूरत।
पर समय बदला, और बदली हवा की दिशा,
उसने पहचाना खुद को, पाई नई शिक्षा।
किताबों में खोई जो आँखें, उन्होंने सपना बुना,
'रोटी कमाने वाली' बन निकली, नया जीवन चुना।
फाइलों में उलझी उँगलियाँ, जो कभी आटा गूँथती थीं,
मशीनों पर चलती कलाइयाँ, जो कभी थपकियाँ देती थीं।
अंतरिक्ष को छू रही, ज़मीन पर नेतृत्व है उसका,
सेना की वर्दी में खड़ी, अब नहीं डरती किसी भी कसक से।
वो लक्ष्मीबाई है — हाथ में अब कलम और तलवार,
वो अहिल्या है — चलाती है न्याय का दरबार।
वो मीरा है — अपने सपनों की दीवानी,
वो सावित्री है — स्वयं लिखती अपनी कहानी।
आज वो है 'अर्थ-प्रदाता', देश की शक्ति, अर्थव्यवस्था का आधार,
चूल्हे की आँच भी संभालती, भरती है अब घर-बाहर का संसार।
वह घर की 'रोटी बनाने वाली' भी है, स्नेह से भरी,
और बाहर की 'रोटी कमाने वाली' भी है, संघर्षों से निखरी।
अतीत को सम्मान देती, भविष्य की ओर बढ़ती है,
भारतीय नारी — हर रूप में, खुद को अब गढ़ती है।
-गुंजा झा