
आज़ादी का सफ़र
1857 में पहली चिंगारी,
किसी ने कहा ग़दर, किसी ने पुकारा आज़ादी की तैयारी।
तलवारों पर लहू था, पर आंखों में सपना,
"हम होंगे आज़ाद" – यह गीत था अपना।
फिर आई 1885 की सभा,
कांग्रेस बनी, सवाल उठा — "कब तक रहेगा ये रब्बा?"
जलियाँवाला बाग़ में गोलियों की बौछार,
धरती ने पी, अपने बच्चों का ख़ून अपार।
1920 में गांधी का डंका बजा,
असहयोग की लहर हर दिल में सजा।
नमक के दाने में भी क्रांति की गंध,
सत्याग्रह ने बदला हर इंसान का छंद।
1942 में "भारत छोड़ो" की हुंकार,
गिरफ्तारियाँ, यातनाएँ, पर हौसला अपार।
1947 में आज़ादी आई, पर साथ में बँटवारा,
ख़ून की नदियाँ, टूटा हर किनारा।
आज़ादी के बाद भी लड़ाई ख़त्म कहाँ,
भूख, गरीबी, जात-पात का रहा यहाँ गहना।
कभी आपातकाल की रातें,
कभी मंडल-कमंडल की बातें।
सदी बदली, पर सियासत के रंग गाढ़े,
कभी धर्म के नाम, कभी सीमा के पहाड़े।
पढ़ाई में बदले पन्ने, सच का किया सौदा,
इतिहास बना हथियार, बच्चों का मौक़ा छीना।
2025 में खड़ा है भारत,
चाँद पर झंडा, पर ज़मीन पर विवादात।
सवाल वही — क्या मिली वो आज़ादी,
जिसके लिए शहीदों ने हँसकर दी थी कुर्बानी?
ये सफ़र अधूरा है, साथी,
जब तक रोटी, इज़्ज़त, और सच्चाई सबकी होगी साथी।
वो सपना पूरा होगा,
जब किताबों में सच... और गलियों में इंसाफ़ होगा।
-गौतम झा